बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 50)

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कातिक की चाँदनी छिटक रही थी।

 गुलाबी जाड़ा पड़ रहा था। 

सवन-जाति की चिड़ियाँ कहीं से उड़कर जाड़े भर इमली की फुनगी पर बसेरा लेने लगी थीं; उनका कलरव उठ रहा था। 

बिल्लेसुर रात को चबूतरे की बुर्जी पर बैठ देखते थे, पहले शाम को आसमान में हिरनी-हिरन जहाँ दिखते थे अब वहाँ नहीं हैं। 

बिल्लेसुर कहते थे, जब जहाँ चरने को चारा होता है, ये चले जाते हैं।

 शाम से ओस पड़ने लगी थी, इसलिये देर तक बाहर का बैठना बन्द होता जा रहा था। 

लोग जल्द-जल्द खा-पीकर लेट रहते थे। 

बिल्लेसुर घर आये। मन्नी की सास ने रोज़ की तरह रोटी तैयार कर रक्खी थी। 

इधर बिल्लेसुर कुछ दिनों से मन्नी की सास की पकाई रोटी खाते हुए चिकने हो चले थे। 

पैर धोकर चौके के भीतर गये। मन्नी की सास ने परोस कर थाली बढ़ा दी। सास को दिखाने के लिये बिल्लेसुर रोज़ अगरासन निकालते थे।

 भोजन करके उठते वक़्त हाथ में ले लेते थे और रखकर हाथ मुँह धोकर कुल्ले करके बकरी के बच्चे को खिला देते थे। 

अगरासन निकालने से पहले लोटे से पानी ले कर तीन दफ़े थाली के बाहर से चुवाते हुए घुमाते थे।

 अगरासन निकाल कर ठुनकियाँ देते हुए लोटा बजाते थे और आँखें बन्द कर लेते थे। वह कृत्य आज भी किया।

जब भोजन करने लगे तब सास जी बड़ी दीनता से खीसें काढ़कर बोलीं, "बच्चा, अब अगहन लगनेवाला है, कहो तो अब चलूँ।" फिर खाँसकर बोली, "वह काम भी तो अपना ही है।"

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